बर्फ की ठंडी चादर ओढ़े
ठिठुर रहा है पर्वत राज
धूप की गुनगुनी गरमी से
पिघला उसका सुनहरा ताज
गिरि राज की गोद से निकल
बह उठा पिघला जल
चट्टानों से पल पल
छल छल निर्मल अविरल
जल में मची खलबली
आई मछलियां सुनहली
कूदे मेंढ़क छमछम
चहके पंछी हरदम
अरे, क्यों हुए सब मेंढ़क चुप
हवा में मंडराया बगुला धूर्त
आया है वह मछली फांसने
छिपीं वे जान बचाने
नदी उतरी घाटी में
बनकर फेन भरा झरना
पत्थर पर गिरते देखो वह
करता है शोर कितना
बांध दिया है मानव ने
यहां नदी को बांध में
बंधे पानी से बिजली बने
चले जिससे कल-कारखाने
यह बही नदी वन में
झुकी हैं डालियां पानी में
आए वनवासी प्यास बुझाने
नदी में तैरने, खेलने, नहाने
दोनों ओर हैं नदी के मैदान
शहर गांव और फल के बागान
लेते हैं सब उससे जल
और देते हैं बदले में मल
फूल गई है नदी बरखा में
उफन रही हैं उसकी लहरें
आ गई बाढ़ की आफत
दौड़ी सरकार करने राहत
यह है नदी का मुहाना
देखो पुल पर रेल हुई रवाना
बिछे हैं पानी में मछुआरों के जाल
फूले हैं पवन से जहाजों के पाल
चली नदी सागर की ओर
जिसका है न ओर या छोर
उछलीं खुश हो सागर की लहरें
नदी को अपनी गोदी में भरने
मंगलवार, 19 मई 2009
बाल कविता - नदी की कहानी
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