वसुंधरा का पांचवां जनम दिन था। उसके नानाजी उसके लिए एक तोहफा लाए थे। वह चमकीले कागज में लिपटा था और लाल रिबन से बंधा था।
वसुंधरा ने तोहफा नानाजी से लिया और बड़े कुतूहल से उसे खोलने लगी। वह एक सुंदर रंग बक्सा था।
नानाजी ने कहा, "बेटा यह एक खास तरह का रंग बक्सा है, जैसा कि तुम्हें जल्द मालूम हो जाएगा।"
वसुंधरा बहुत ही खुश हुई। उसे चित्र बनाना और उनमें रंग भरना बेहद पसंद था। "ओह नानाजी, आप कितने अच्छे हैं!" कहकर वह अपने नानाजी से लिपट गई। नानाजी मुसकुरा उठे।
वसुंधरा ने कागज पर पेंसिल से तितली का चित्र बनाया और रंग बक्सा खोलकर तितली के पंखों पर तरह-तरह के रंग भरने लगी। जब चित्र पूरा हो गया तो वसुंधरा थोड़ा पीछे हटकर चित्र को निहारने लगी। वह अभी चित्र को परख ही रही थी कि तितली ने अपने सुंदर पंख खोले और कागज से उड़ गई। थोड़ा इधर-उधर भटककर वह बगीचे के एक फूल पर जा बैठी। यह देखकर वसुंधरा पहले तो बहुत चौंकी। पर तभी उसे नानाजी की बात याद आई कि रंग बक्सा खास प्रकार का है। वह शायद जादुई रंग बक्सा था। वसुंधरा सब समझ गई।
अब वसुंधरा ने एक सुंदर रंग-बिरंगी चिड़िया का चित्र बनाया। चित्र पूरा होते ही चिड़िया चीं-चीं करके बोल उठी। अपने नन्हें पंखों को थोड़ा फड़फड़ाकर वह पहले वसुंधरा के सिर पर बैठी फिर खिड़की से बाहर उड़ गई। इस बार वसुंधरा जरा भी नहीं चौंकी। उसे पता था कि चिड़िया ठीक वैसा ही करेगी।
इसके बाद वसुंधरा ने गिलहरी, खरगोश, मेंढ़क आदि के चित्र बनाए। वे सब कागज से जिंदा होकर बगीचे में आ गए और वहां कूदने, फुदकने और बोलने लगे। उन्हें देखकर वसुंधरा बहुत ही प्रसन्न हुई।
सोमवार, 1 जून 2009
बाल कहानी : जादुई रंग बक्सा
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