शुक्रवार, 5 जून 2009

गुब्बारे से बनी कला कृतियां

बच्चो, तुम्हें गुब्बारे प्रिय हैं, है न। तुमने तरह-तरह के गुब्बारे देखे होंगे। होली में भी गुब्बारों का उपयोग किया होगा। अब तुम यहां देखोगे, गुब्बारों का एक बिलकुल नया उपयोग। है न मजेदार चीज!



है न प्यारी यह गुब्बारे की मछली! और यह पहलवान, वह तो बिलकुल भीम लगता है!



ये लो माटरसाइकिल, इसमें तो आइना भी है!



और यह रही पीले बालों वाली गुड़िया, कितनी सुंदर है यह!



तुम भी बनाओ ऐसी कला कृतियां गुब्बारे से।

गुरुवार, 4 जून 2009

आज पर्यावरण दिवस है

आज 5 जून है, यानी पर्यावरण दिवस।

आज तुम्हें करना है ऐसा कोई काम जो पर्यावरण, प्रकृति, वन्यजीवन, वन आदि को फायदा पहुंचाए।

क्या तुम सोच रहे हो, या रही हो, कि मैं क्या कर सकता हूं, या कर सकती हूं? मैं तो एक छोटा बच्चा, या बच्ची, ही हूं।

क्या तुमने उस गिलहरी की कहानी सुनी है, जिसने समुद्र में पुल बांधने में श्री राम की मदद की थी? उसने यह नहीं सोचा, कि मैं क्या कर सकती हूं, मैं तो बस एक छोटी सी गिलहरी हूं, यहां तो अंगद, हनुमान, जांबवान, सुग्रीव आदि बड़े-बड़े योद्धा हैं, नल-नील आदि बड़े-बड़े इंजीनियर हैं, और विभीषण, लक्षमण आदि कुशल लोग हैं। वे सब कर लेंगे, मुझे बीच में पड़ने की कोई जरूरत नहीं।

नहीं वह गिलहरी समुद्र में डुबकी लगाकर रेत में लोटी। फिर जहां पुल बन रहा था वहां जाकर अपने शरीर को झटकर उससे चिपके रेत को वहां गिराया। योगदान तुच्छ, पर महत्वपूर्ण था। उसके योगदान का मूल्य इसमें नहीं था कि कितने कण रेत उसने इस तरह पुल तक पहूंचाए, बल्कि इसमें था कि उसके मन में मदद करने की कितनी सच्ची भावना थी।

आओ, तुम्हें एक और प्रेरक प्रसंग सुनाता हूं, इस बार हमारे बापू की। तुम जानते/ती ही हो कि वे आजादी की लड़ाई के लिए लोगों से चंदे वसूलते थे। उनकी सभा में जो भी जाता था, उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे कुछ-न-कुछ चंदा दें। ऐसी एक सभा में हजारों रुपए जमा किए गए। बड़े-बड़े सेठ, उद्योगपतियों, वकीलों, डाक्टरों आदि ने गांधी जी पर रुपए बरसाए। एक भिखारी भी उस सभा में आया था। उसके पास ज्याद पैसे न थे। फिर भी उसने दो-एक पैसे गांधी जी को दिए।

बाद में जब गांधी जी सभा को संबोधित कर रहे थे, उन्होंने जिक्र किया तो उस भिखारी से मिले दो-एक पैसे का, न कि सेठों, उद्योगपतियों, वकीलों, डाक्टरों से मिले हजारों रुपए का। गांधी जी ने कहा, यदि धन्ना सेठ जिनके पास करोड़ों रुपए हैं, कुछ हजार रुपए मुझे दे दें, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन उस भिखारी का दो-तीन पैसे देना बहुत बड़ी बात है। संभव है वह उसकी पूरे दिन की या कई दिनों की कमाई हो। उसे देने के बाद उसे उस रात भूखा रहना पड़ा हो। इसलिए उसने अपनी गाढ़ी कमाई मुझे देकर सेठों, उद्योगपतियों आदि से कहीं बड़ा बलिदान किया है, और इसलिए उसके पैसे का मूल्य भी कहीं ज्यादा है।

तो अपनी तुच्छता या छुटता का ख्याल न करके, पर्यावरण को फायदा पहुंचानेवाला कोई काम कर डालो आज। कुछ सुझाव यहां दे रहा हूं -

1. घर में पानी, बिजली, ईंधन आदि की बचत करने का प्रयास करो। घर के अन्य लोगों को भी इसके लिए प्रोत्साहन दो। कमरे से जाते समय लाइट, फैन आदि को बंद करो। टपकते नलों को ठीक कराओ। रसोईघर में खाना पकाते समय बर्तन को बंद रखने को कहो। घर में सब एक-साथ खाओ ताकि खाने को बारबार गरम न करना पड़े।

2. घर में सब्जी आदि धोने के पानी से गमलों और बगीचे को सींचो।

3. कागज, प्लास्टिक, बोतल आदि को इकट्ठा करके रद्दीवाले को बेचो।

4. यदि सुविधा हो, तो घर के बगीचे में या अन्य किसी जगह पेड़ लगाओ। यदि नहीं, आस-पास लगे पेड़ों को पानी दो और उनकी देखभाल करो।

5. दोस्तों में, आस पड़ोस के लोगों में पर्यावरणीय चेतना जगाने की कोशिश करो। मेरे एक अन्य ब्लोग कुदरतनामा में पर्यावरण पर एक नाटक का स्क्रिप्ट दिया गया है। दो-चार बच्चे मिलकर और टीचर, मां-बांप आदि की मदद लेकर इसे अपने स्कूल में, मुहल्ले में, नुक्कड़ पर मंचित करो। स्वयं में पर्यावरण पर लेख, कहानी, कविता, नाटक आदि लिखकर प्रकाशित करो।

6. इंटरनेट, पुस्तकें, टीवी आदि से पर्यावरण, वन्यजीवन, पर्यावरणीय समस्याएं आदि के बारे में अधिकाधिक जानकारी संकलित करो, और इन समस्याओं का क्या समाधान हो सकता है, इसके बारे में गंभीरता से सोचो।

7. कहीं पास में जाना हो, तो पैदल जाओ या साइकिल पर या बस-ट्रेन आदि से, न कि मोटरकार से या स्कूटर आदि से।

8. बाजार जाते समय अपने पास कपड़े का थैला रखों और दुकानदारों से कहो कि वे सामन को प्लास्टिक के थैलों में न दें बल्कि आपके थैले में सीधे डालें।

पर्यावरण दिवस के पर्व को सफल बनाओ।

यदि तुम जानना चाहते/ती हो, कि पर्यावरण दिवस क्यों मनाया जाता है और उसकी शुरुआत कैसे हुई, तो मेरे ब्लोग कुदरतनामा का यह लेख पढ़ो।

बुधवार, 3 जून 2009

बाल कहानी : दानव और बकरे

जंगल के पास एक गांव था। गांव के किनारे से एक नदी बहती थी। नदी पर एक पुल था। पुल के नीचे एक दानव रहता था।

जंगल में तीन बकरे चर रहे थे। सबसे बड़े बकरे ने सबसे छोटे बकरे से कहा, "नदी के पार गांव के खेतों में खूब फल-सब्जी उगे हुए हैं। उनकी महक यहां तक आ रही है। जा पुल पर से नदी पार करके उन्हें खा आ।"

छोटा बकरा पुल पार करने लगा। जब वह पुल के बीच तक पहुंच गया तो दानव पुल के ऊपर चढ़ आया और अपने बड़े-बड़े खांग और नाखून दिखाकर नन्हे बकरे को डराते हुए बोला, "मुझे बड़ी भूख लगी है। मैं तुझे खा जाऊंगा।"

डर से कांपते हुए नन्हा बकरा बोला, "मुझे मत खाओ दानव। मैं बहुत छोटा हूं। मुझसे तुम्हारी भूख नहीं मिटेगी। मेरे दो बड़े दोस्त हैं। वे अभी इसी ओर आने वाले हैं। उन्हें खा लो।"

दानव बड़े बकरों को खाने के लालच में आ गया। बोला, "अच्छा तू जा। मैं बड़े बकरों का इंतजार करूंगा।"

नन्हा बकरा सिर पर पांव रखकर वहां से भागा और गांव के खेत में पहुंचकर ताजा फल-सब्जी खाने लगा।

सबसे बड़े बकरे ने तब मंझले बकरे से कहा, "अब तू पुल पर से गांव की ओर जा।"

मंझला बकरा पुल पार करने लगा। जब वह पुल के बीच पहुंचा तो दानव ऊपर चढ़ आया और अपने खांग और नाखून से उसे डराते हुए बोला, "मुझे बड़ी भूख लगी है। मैं तुझे खा जाऊंगा।"

मझले बकरे ने कहा, "मुझे जाने दो दानव। मैं अभी छोटा ही हूं। मुझसे तुम्हारी भूख नहीं मिटेगी। अभी मेरा एक दोस्त आनेवाला है। वह मुझसे बहुत बड़ा है। उसे खा लो।"

दानव बोला, "अच्छा तू जा।"

मझला बकरा वहां से भागकर नन्हे बकरे के पास पहुंच गया।

अब बड़ा बकरा पुल पार करने लगा। वह खूब मोटा और तगड़ा था। उसके चलने से पुल चरमरा उठा। उसके सींग लंबे और खूब नुकीले थे।

जब वह पुल के बीच पहुंचा तो दानव एक बार फिर पुल के ऊपर चढ़ आया और अपने खांग और नाखून से उसे डराते हुए बोला, "मुझे बड़ी भूख लगी है। मैं तुझे अभी खा जाऊंगा।"

पर बड़ा बकरा जरा भी नहीं डरा। उसने अपने अगले पांवों से जमीन कुरेदते हुए हुंकार भरी और सिर नीचा करके दानव के पेट पर अपने सींगों से जोर से प्रहार किया। दानव दूर नदी में जा गिरा। अब बड़ा बकरा इत्मीनान से पुल पार कर गया और अपने दोनों साथियों के पास पहुंचकर मनपसंद भोजन करने लगा।

मंगलवार, 2 जून 2009

प्रेरक प्रसंग : आरुणी का साहस

आरुणी ऋषि अरुणी का पुत्र था। ऋषि धौम्य के आश्रम में वह कृषिविज्ञान और पशुपालन से संबंधित विषयों का अध्ययन कर रहा था।

आरुणी ने देखा कि आश्रम की जमीन ऊबड़-खाबड़ होने से वर्षाकाल में जमीन से बहते पानी के साथ बहुत सी मिट्टी भी बह जाती है। इससे इस जमीन से अधिक पैदावार नहीं मिल पाती। उसने अपने गुरु से इसकी चर्चा की। ऋषि धौम्य ने अपने शिष्य को सलाह दी कि वह जमीन को समतल करे और पानी के बहाव को रोकने के लिए जमीन को एक बंध से घेर दे। आरुणी पूरे उत्साह से इस काम में लग गया और कुछ ही समय में उसे पूरा कर दिया।

जब बारिश आई तो ऋषि धौम्य ने आरुणी से कहा, "वत्स, वर्षा आरंभ हो गई है। मैं चाहता हूं कि तुम जाकर देख आओ कि जमीन के चारों ओर का बंध सही-सलामत है कि नहीं। यदि वह कहीं पर से टूटा हो तो उसकी मरम्मत कर दो।"

गुरु की आज्ञा शिरोधार्य मानते हुए आरुणी खेतों का मुआयना करने निकल पड़ा। एक जगह बंध सचमुच टूटा हुआ था और वर्षा का पानी वहां से बह रहा था। बहते पानी के वेग से बंध का और हिस्सा भी टूटने लगा था। आरुणी ने देखा कि यदि जल्द ही कुछ न किया गया तो पूरे बंध के ही बह जाने का खतरा है। उसने आसपास की मिट्टी से बंध में पड़ी दरार को भरने की कोशिश की, पर जब इससे कुछ फायदा नहीं हुआ, तो वह स्वयं ही दरार के आगे लेट गया। उसके शरीर के दरार से लग जाने से पानी का बहना तो बंद हो गया, पर सारा कीचड़ उसके शरीर से चिपकने लगा। लेकिन आरुणी ने इसकी कोई परवाह नहीं की।

बहुत समय बीतने पर भी जब आरुणी आश्रम नहीं लौटा तो ऋषि धौम्य को चिंता होने लगी। बरसात के रहते हुए भी कुछ शिष्यों को साथ लेकर वे आरुणी की खोज में निकल पड़े।

आरुणी को कीचड़ से लथपथ जमीन पर लेटे देखकर वे दंग रह गए। पर उन्हें सारी बात समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने आरुणी को गले से लगा लिया और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले, "मैं तुम्हारे साहस और कर्तव्यनिष्ठा से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने अपनी जान की बाजी लगाकर तुम्हें सौंपा गया काम पूरा किया। ऐसी बहादुरी इस दुनिया में बिरले ही देखने को मिलती है।"

फिर ऋषि धौम्य के निर्देशन में सभी शिष्यों ने मिलकर बंध की दरार की मरम्मत की।

सिखों का पवित्र ग्रंथ


सिखों का पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहब है। उसमें सिक्खों के सभी दस गुरुओं और अनेक अन्य संतों की रचनाएं संकलित की गई हैं। इन संतों में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं। सिक्ख अपने गुरुओं के अथवा भगवान के चित्र, मूर्ति आदि प्रदर्शित नहीं करते। उनके देवालयों में, जिन्हें गुरुद्वारा कहा जाता है, गुरु ग्रंथ साहब ही प्रतिष्ठित रहता है।

दुनिया का सबसे शक्तिशाली जीव


दुनिया का सबसे शक्तिशाली जीव न हाथी है न बैल न घोड़ा। वह है तुच्छ समझा जानेवाला घोंघा। घोंघा स्वयं 100 ग्राम से भी कम भारी होता है, पर वह अपने वजन से 400 गुना अधिक भारी वस्तुओं को खींच सकता है। पर उसकी रफ्तार बहुत ही धीमी होती है, लगभग 5 मीटर प्रति घंटा।

सोमवार, 1 जून 2009

बाल कहानी : जादुई रंग बक्सा

वसुंधरा का पांचवां जनम दिन था। उसके नानाजी उसके लिए एक तोहफा लाए थे। वह चमकीले कागज में लिपटा था और लाल रिबन से बंधा था।

वसुंधरा ने तोहफा नानाजी से लिया और बड़े कुतूहल से उसे खोलने लगी। वह एक सुंदर रंग बक्सा था।

नानाजी ने कहा, "बेटा यह एक खास तरह का रंग बक्सा है, जैसा कि तुम्हें जल्द मालूम हो जाएगा।"

वसुंधरा बहुत ही खुश हुई। उसे चित्र बनाना और उनमें रंग भरना बेहद पसंद था। "ओह नानाजी, आप कितने अच्छे हैं!" कहकर वह अपने नानाजी से लिपट गई। नानाजी मुसकुरा उठे।

वसुंधरा ने कागज पर पेंसिल से तितली का चित्र बनाया और रंग बक्सा खोलकर तितली के पंखों पर तरह-तरह के रंग भरने लगी। जब चित्र पूरा हो गया तो वसुंधरा थोड़ा पीछे हटकर चित्र को निहारने लगी। वह अभी चित्र को परख ही रही थी कि तितली ने अपने सुंदर पंख खोले और कागज से उड़ गई। थोड़ा इधर-उधर भटककर वह बगीचे के एक फूल पर जा बैठी। यह देखकर वसुंधरा पहले तो बहुत चौंकी। पर तभी उसे नानाजी की बात याद आई कि रंग बक्सा खास प्रकार का है। वह शायद जादुई रंग बक्सा था। वसुंधरा सब समझ गई।

अब वसुंधरा ने एक सुंदर रंग-बिरंगी चिड़िया का चित्र बनाया। चित्र पूरा होते ही चिड़िया चीं-चीं करके बोल उठी। अपने नन्हें पंखों को थोड़ा फड़फड़ाकर वह पहले वसुंधरा के सिर पर बैठी फिर खिड़की से बाहर उड़ गई। इस बार वसुंधरा जरा भी नहीं चौंकी। उसे पता था कि चिड़िया ठीक वैसा ही करेगी।

इसके बाद वसुंधरा ने गिलहरी, खरगोश, मेंढ़क आदि के चित्र बनाए। वे सब कागज से जिंदा होकर बगीचे में आ गए और वहां कूदने, फुदकने और बोलने लगे। उन्हें देखकर वसुंधरा बहुत ही प्रसन्न हुई।

बैंक का स्थानांतरण

अमेरिका की एक रियासत का नाम डकोटा है। वहां पिछली सदी के शुरू के वर्षों में एक बैंक था। उसे वहां से उखाड़ कर 15 मील दूर एक दूसरी जगह पर रख दिया गया. बैंक की इमारत उठाकर पहले बड़ी-बड़ी गाड़ियों पर रखी गई. फिर वे गाड़ियां बेलनों पर चढ़ाई गईं। गाड़ियों में आगे और दाहिने बाएं बहुत से घोड़े जोत दिए गए। बस उन्होंने खींच कर बैंक को इच्छित स्थान पर पहुंचा दिया। बैंक की इमारत खाली नहीं थी। उसकी चीज-वस्तु सब उसी के भीतर थी। यही नहीं, बल्कि उसके कुछ क्रमचारी भी यह तमाशा देखने के लिए उसके भीतर थे।

हाथियों के लिए पेंशन


वन विभाग के साथ काम कर रहे हाथियों को अब पेंशन मिलेगा। जब वे सेवानिवृत्त हो जाएंगे, उन्हें मृत्यु पर्यंत गन्ना, केला, आटा और चारा उपलब्ध कराया जाएगा।

उप अरण्यपाल श्री अतिबल सिंह के अनुसार इससे पहले हाथियों के सेवानिवृत्त होने का कोई उम्र नहीं निश्चित था। वे लगभग 10 साल की उम्र से काम करने लगते थे। पर अब यदि हाथियों की देखरेख से जुड़े किसी भी अधिकारी को लगे कि हाथी कमजोर और बूढ़ा हो गया है और उससे काम करते नहीं बनता, तो वह उसे रिटायर कर सकता है।

नए नियमों में गर्भिणी हथिनियों के लिए दो वर्ष के मेटेर्निटी लीव की व्यवस्था भी की गई है।

 

हिन्दी ब्लॉग टिप्सः तीन कॉलम वाली टेम्पलेट